EPISODE 1st
आकाश में केसरिया छा गया, आह! वह हिमाच्छादित श्वेत पर्वत, और लहलहाते हुए यह हरे-हरे खेत..
प्रकृति के रूप में तिरंगे को पा लिया । दिन आजादी की चौथी जयंती का था । चारों ओर देशप्रेम की बयार दौड़ पड़ी। देशभक्ति धुनें कानों में संचार करने लगीं, मन गदगद होने लगा, आत्मा तृप्ति की ओर रुख कर गई। और देशप्रेम के नशे में चूर होकर, देशवासियों के प्रति प्रेम सद्भाव लिए वह चलता रहा ।
राह में जो भी मिला, गले लगाकर इस स्वर्णिम दिन की बधाई देने लगा, माता-बहिनों को उसने दूर से ही हाथ जोड़ कर 'जय हिन्द' कहा।
'हिन्द देश के निवासी, सभी जन एक हैं' गुनगुनाते हुए, राष्ट्रप्रेम से तल्लीन होकर वह चलता रहा ।
गांव से शहर को अभी डेढ़ -दो घंटे का पैदल रास्ता बाकी था, मगर उम्र के आखरी पड़ाव पर आकर भी बिरजू ठेकेदार बड़ी ही सरलता से उन उबड़- खाबड़ रास्तों पर चला जा रहा था । थकान क्या है..? जैसे वह जानता ही ना हो । उसे तो बस शहर पहुंचकर आजादी का जलसा और परेड देखने का फितूर सवार था ।
ढीला- ढाला, मोटा- झोटा पहने हुए, पके हुए लंबे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी.. किन्तु चेहरे पर प्रसन्नता का भाव, कांधे पर एक झोला टांगे हुए, जिसपर जगह- जगह पैबंद लगे हुए थे। हाथ में एक लंबा सा बेत, जूतों से अंगूठे बाहर झांक रहे थे, किन्तु मुख पर ऐसा संतोष था, जैसे वह स्वर्णाभूषणों से सजा हुआ हो ।
वह भी जमाना था जब बिरजू ठेकेदार एक खुशहाल गृहस्थी का स्वामी था । अच्छी खासी जमीन थी, जागीरदारी में तनिक भी अभाव ना था । पेशे के रूप में एक सुसंपन्न ठेकेदारी थी।
घर में दसों- नौकर चाकरी करते, तो कदम-कदम पर कहारों की मुस्तैदी थी। इसके अलावा अन्य कारोबार भी था, तो मुनीम- गुमाशतों की एक पलटन ही साथ होती ।
द्वार पर आए हुए हर -एक कि आव-भगत में कोई कसर न छोड़ी जाती ।
कुंए से प्यासा प्यासा लौट सकता था, लेकिन शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि बिरजू के द्वार से कोई फ़कीर बैरंग लौटा हो।
( जारी)
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